Thursday, May 27, 2010

हमारे पूर्वजों और ऋषियों के पास विशिष्ट सिद्धियां थी, परन्तु उनमें से काल के प्रवाह में बहु कुछ लुप्त हो गईं| उनमें भी बारह सिद्धियां तो
सर्वथा लोप हो गईं थी, जिनका केवल नामोल्लेख इधर उधर पढ़ने को मिल जाता था पर उसके बारे में न तो किसी को प्रामाणिक ज्ञान था और न उन्हें ऐसी सिद्धि
प्राप्त ही थी| ये इस प्रकार हें - १.परकाया सिद्धि २.आकाश गमन सिद्धि ३.जल गमन प्रक्रिया सिद्ध ४.हादी विद्या - जिसके माध्यम से साधक बिना कुछ आहार ग्रहण किये वर्षों जीवित रह सकता है| ५. कादी विद्या- जिसके माध्यम से साधक या योगी कैसी भी परिस्थिति में अपना अस्तित्व बनाए
रख सकता है| उस पर सर्दी, गर्मी, बरसात, आग हिमपात आदि का कोई प्रभाव नहीं होता| ६.काली सिद्धि- जिसके माध्यम से हजारों वर्ष पूर्व के क्षण को या घटना को पहिचाना जा सकता है,
देखा जा सकता है और समझा जा सकता है| साठ ही आने वाले हजार वर्षों के कालखण्ड को जाना जा सकता है कि भविष्य में कहां क्या घटना घटित होगी और किस प्रकार से घटित होगी इसके बारे में प्रामाणिक ज्ञान एक ही क्षण में हो जाता है| यही नहीं अपितु इस
साधना के माध्यम से भविष्य में होने वाली घटना को ठीक उसी प्रकार से देखा
जा सकता है, जिस प्रकार से व्यक्ति टेलेवीजन पर कोई फिल्म देख रहा हों| ७.
संजीवनी विद्या, जो शुक्राचार्य या कुछ ऋषियों को ही ज्ञात थी जिसके माध्यम से मृत व्यक्ति को भी जीवन दान दिया जा सकता है| ८. इच्छा मृत्यु साधना- जिसके माध्यम से काल पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है और साधक चाहे तो सैकड़ो-हजारों वर्षों तक जीवित रह सकता है| ९. काया कल्प साधना
- जिसके माध्यम से व्यक्ति के शरीर में पूर्ण परिवर्तन लाया जा सकता है और
ऐसा परिवर्तन होने पर वृद्ध व्यक्ति का भी काया कल्प होकर वह स्वस्थ
सुन्दर युवक बन सकता है, रोग रही ऐसा व्यक्तित्व कई वर्षों तक स्वस्थ रहकर
अपने कार्यों में सफलता पा सकता है| १०. लोक गमन सिद्धि-जिसके माध्यम से पृथ्वी लोक में ही नहीं अपितु अन्य लोकों में भी उसी
प्रकार से विचरण कर सकता है जिस प्रकार से हम कार के द्वारा एक स्थान से
दुसरे स्थान या एक नगर से दुसरे नगर जाते हें| इस साधना के माध्यम से भू
लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, चंद्रलोक,
सूर्यलोक और वायु लोक में भी जाकर वहां के निवासियों से मिल सकता, वहां की
श्रेष्ठ विद्याओं को प्राप्त कर सकता है और जब भी चाहे एक लोक से दुसरे
लोक तक जा सकता है| ११. शुन्य साधना - जिसके माध्यम से
प्रकृति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है| खाद्य पदार्थ, भौतिक वस्तुएं
और सम्पन्नता अर्जित की जा सकती है| १२. सूर्य विज्ञान- जिसके माध्यम से एक पदार्थ को दुसरे पदार्थ में रूपांतरित किया जा सकता है|
 
अपने तापोबल से पूज्य निखिलेश्वरानन्द जी ने इन सिद्धियों को उन विशिष्ट
ऋषियों और योगियों से प्राप्त किया जो कि इसके सिद्ध हस्त आचार्य थे| मुझे
भली भांति स्मरण है कि परकाया प्रवेश साधना,
इन्होनें सीधे विश्वामित्र से प्राप्त की थी| साधना के बल पर उन्होनें
महर्षि विश्वामित्र को अपने सामने साकार किया और उनसे ही परकाया प्रवेश की
उन विशिष्ट साधनाओं सिद्धियों को सीखा जो कि अपने आप में अन्यतम है|
शंकराचार्य के समय तक तो परकाया प्रवेश की एक ही विधि प्रचिलित थी जिसका
उपयोग भगवदपाद शंकराचार्य ने किया था परन्तु योगिराज निखिलेश्वरानन्द जी
ने विश्वामित्र से उन छः विधियों को प्राप्त किया जो कि परकाया प्रवेश से
सम्बंधित है| परकाया प्रवेश केवल एक ही विधि से संभव नहीं है अपितु कई
विधियों से परकाया प्रवेश हो सकता है| यह निखिलेश्वरानन्द जी ने सैकड़ो
योगियों के सामने सिद्ध करके दिखा दिया|
 
 
 
परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी इन बारहों सिद्धियों के सिद्धहस्त
आचार्य है| कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे यह अलौकिक और दुर्लभ सिद्धियां
नहीं उनके हाथ में खिलौने हें, जब भी चाहे वे प्रयोग और उपयोग कर लेते
हें| इन समस्त विधियों कों उन्होनें उन महर्षियों से प्राप्त किया है जो
इस क्षेत्र के सिद्धहस्त आचार्य और योगी रहे हें|उन्होनें हिमालय स्थित योगियों, संन्यासियों और सिद्धों के सम्मलेन में दो
टूक शब्दों में कहा था कि तुम्हें इन कंदराओं में निवास नहीं करना हें और
जंगल में नहीं भटकना हें, इसकी अपेक्षा समाज के बीच जाकर तुम्हें रहना है|
उनके दुःख दर्द कों बांटना है, समझना है और दूर करना है|
मैंने कई बार अनुभव किया है, कि उनके दरवाजे से कोई खाली हाथ नहीं लौटा|
जिस शिष्य, साधक, योगी या संन्यासी ने जो भी चाहा है उनके यहां से प्राप्त
हुआ| गोपनीय से गोपनीय साधनाएं देने भी वे हिचकिचाये नहीं| साधना के मूल
रहस्य स्पष्ट करते, अपने अनुभवों कों सुनाते, उन्हें धैर्य बंधाते, पीठ पर
हाथ फेरते और उनमें जोश तथा आत्मविश्वास भर देते, कि वह सब कुछ कर सकता है
और यही गुण उनकी महानता का परिचय है|
सूर्य सिद्धांत के आचार्य पतंजलि ने अपने सूत्रों में बताया है, कि सूर्य की किरणों में विभिन्न
रंगों की रश्मियों हें और इनका समन्वित रूप ही श्वेत है| इन्हीं रश्मियों
के विशेष संयोजन से योगी किसी भी पदार्थ कों सहज ही शुन्य में से निर्मित
कर सकता है, या एक पदार्थ कों दुसरे पदार्थ में परिवर्तित कर सकता
है| मैंने स्वयं ही गुरुदेव कों अपने संन्यास जीवन में चौबीस वर्तुल वाले
एक स्फटिक लेंस से प्रकाश रश्मियों कों परिवर्तित करते देखा है| और पुनः
उस स्फटिक वर्तुल हीरक खण्ड कों शुन्य में वापस कर देते हुए देखा है,
क्योंकि ये उन्हीं का कथन है, कि योगी अपने पास कुछ भी नहीं रखता| जब
जरूरत होती है, तब प्रकृति से प्राप्त कर लेता है और कार्य समाप्त होने पर
वह वस्तु प्रकृति कों ही लौट देता है|शिष्य ज्ञान मैंने स्वयं ही उन्हें अनेक अवसरों पर अपने पूर्व जन्म के शिष्य-शिष्याओं
कों खोजकर पुनः साधनात्मक पथ पर सुदृढ़ करते हुए देखा है| एक बार नैनीताल
के किसी पहाड़ी गाँव के निकट हम कुछ शिष्य जा रहे थे| गुरुदेव हम सभी कों
लेकर गाँव के एक ब्राह्मण के छोटे से घर में पहुंचे और ब्राह्मण से बोले -
'क्या आठ साल पहले तुम्हारे घर में किसी कन्या ने जन्म लिया था? ब्राह्मण
ने आश्चर्यचकित होकर अपनी पुत्री सत्संगा को बुलाया, जिसे देखकर हम सभी
चौंक गए| उसका चेहरा थी मां अनुरक्ता की तरह था| यद्यपि मां के चहरे पर
झुर्रियां पड़ गई थी और यह अभी बालिका थी, परन्तु चेहरे में बहुत कुछ साम्य
साफ-साफ दिखाई दे रहा था| सत्संगा ने गुरुदेव के सामने आते ही दोनों हाथ
जोड़ लिए और ठीक मां की तरह चरणों में झुक गई|गुरुदेव ने बताया कि किस तरह उनकी शिष्या मां अनुरक्ता ने अपने मृत्यु के
क्षणों में उनसे वचन लिया था, कि अगले जन्म में बाल्यावस्था होते ही
गुरुदेव उसे ढूंढ निकालेंगे और साधनात्मक पथ पर अग्रसर कर देंगे| यह कन्या
सत्संगा वही मां अनुरक्ता हें| गुरुदेव ने उसे दीक्षा प्रदान की, अपने गले
की माला उतार कर उसे दी और गुरु मंत्र दे कर वहां से पुनः रवाना हो गए|
अपने प्रत्येक शिष्य-शिष्याओं का उन्हें प्रतिपल जन्म से लेकर मृत्यु तक
ध्यान रहता हें और उनका प्रत्येक क्षण ही शिष्य के कल्याण के चिन्तन में
ही बीतता हें| धन्य हें वे जिनको कि उनका शिष्यत्व प्राप्त हुआ है|तंत्र मार्ग का सिद्ध पुरुष सही अर्थों में देखा जाय तो तंत्र भारतवर्ष का आधार रहा है| तंत्र का
तात्पर्य व्यवस्थित तरीके से कार्य संपन्न होना| प्रारम्भ में तो तंत्र
भारतवर्ष की सर्वोच्च पूंजी बनी रही बाद में धेरे-धीरे कुछ स्वार्थी और
अनैतिक तत्व इसमें आ गए, जिन्हें न तो तंत्र का ज्ञान था और न इसके बारे
में कुछ विशेष जानते ही थे| देह सुख और भोग को ही उन्होनें तंत्र मां लिया
था| तंत्र तो भगवान् शिव का आधार है| उन्हें द्वारा तंत्र का प्रस्फुटन हुआ|
जो कार्य मन्त्रों के माध्यम से संपादित नहीं हो सकता, तंत्र के द्वारा उस
कार्य को निश्चित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है| मंत्र का तात्पर्य है
प्रकृति की उस विशेष सत्ता को अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्न करना और अनुकूल
बनाकर कार्य संपादित करना| पर तंत्र के क्षेत्र में यह स्थिति सर्वथा
विपरीत है| यदि सीधे-सीधे तरीके से प्रकृति वशवर्ती नहीं होती, तो
बलपूर्वक उसे वश में किया जाता है और इसी क्रिया को तंत्र कहते हैं|
तंत्र तलवार की धार की तरह है| यदि इसका सही प्रकार से प्रयोग किया जाय,
तो प्रांत अचूक सिद्धाप्रद है पर इसके विपरीत यदि थोड़ी भी असावधानी और
गफलत कर दी जाय तो तंत्र प्रयोग स्वयं करता को ही समाप्त कर देता है| ऐसी
कठिन चुनौती को निखिलेश्वरानन्द ने स्वीकार किया और तंत्र के क्षेत्र में
उन स्थितियों को स्पष्ट किया जो कि अपने-आप में अब तक गोपनीय रही है|उन्होनें दुर्गम और कठिन साधनाओं को तंत्र के माध्यम से सिद्ध करके दिखा
दिया कि यह मार्ग अपेक्षाकृत सुगम और सरल है| स्वामी
निखिलेश्वरानन्द जी तंत्र के क्षेत्र की सभी कसौटिया में खरे उतारे तथा उनमें अद्वितीयता प्राप्त की| त्रिजटा अघोरी तंत्र का एक परिचित नाम है| पर गुरुदेव का शिष्यत्व पाकर उसने यह स्वाकार किया कि यदि सही
अर्थों में कहा जाय तो स्वामी निखिलेश्वरानन्द तंत्र के क्षेत्र
में  अंतिम 
नाम है| न तो उनका मुकाबला किया जा सकता है और न ही इस क्षेत्र में उन्हें
परास्त किया जा सकता है| एक प्रकार से देखा जाय तो सही अर्थों में वह शिव
स्वरुप हैं, जिनका प्रत्येक शब्द अपनी अर्थवत्ता लिए हुई है, जिन्होनें
तंत्र के माध्यम से उन गुप्त रहस्यों को उजागर किया है जो अभी तक गोपनीय
रहे है| 
---योगी विश्वेश्रवानंद 

Friday, January 8, 2010

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी -


परमपूज्य सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी एक ऐसे उदात्ततम
व्यक्तित्व हें, जिनके चिन्तन मात्र से ही दिव्यता का बोध होने लगता हैं।
प्रलयकाल में समस्त जगत को अपने भीतर समाहित किए हुए महात्मा हिरण्यगर्भ
की तरह शांत और सौम्य हैं। व्यवहारिक क्षेत्र में स्वच्छ धौत वस्त्र में
सुसज्जित ये जितने सीधे-सादे से दिखाई देते हैं, इससे हट कर कुछ और भी
हैं, जो सर्वसाधारण गम्य नहीं हैं। साधनाओं के उच्चतम सोपान पर स्थित
विश्व के जाने-मने सम्मानित व्यक्तित्व हैं। इनका साधनात्मक क्षेत्र इतना
विशालतम है, कि इसे सह्ब्दों के माध्यम से आंका नहीं जा सकता। किसी भी
प्रदर्शन से दूर हिमालय की तरह अडिग, सागर की तरह गंभीर, पुष्पों की तरह
सुकोमल और आकाश की तरह निर्मल हैं।

इनके संपर्क में आया हुआ व्यक्ति एक बार तो इन्हें देखकर अचम्भे में पड़
जाता हैं, कि ये तो महर्षि जह्रु की तरह अपने अन्तस में ज्ञान गंगा के
असीम प्रवाह को समेटे हुए हैं।

पूज्य गुरुदेव ऋषिकालीन भारतीय ज्ञान परम्परा की अद्वितीय कड़ी हैं। जो ज्ञान मध्यकाल में अनेक-प्रतिघात के कारण अविच्छिन्न हो, निष्प्राण हो गया था, जिस दिव्य ज्ञान की छाया तले समस्त जाति ने सुख, शान्ति एवं आनंद का अनुभव किया था, जिसे ज्ञान से संबल पाकर सभी गौरवान्वित हुए थे। तथा समस्त विसंगतियों को परास्त करने में सक्षम हुए थे, जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों ने अपनी तपः ऊर्जा से सबल एवं परिपुष्ट करके जन कल्याण के हितार्थ स्वर्णिम स्वप्न देखे थे... पूज्यपाद सदगुरुदेव श्रीमाली जी ने समाज की प्रत्येक विषमताओं से जूझते हुए, अपने को तिल-तिल जलाकर उसी ज्ञान परम्परा को पुनः जाग्रत किया है, समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर उन्होनें पुनः उस ज्ञान प्रवाह को साधनाओं के माध्यम से आप्लावित किया है। मानव कल्याण के लिए अपनी आंखों में अथाह करुणा लिए उन्होनें मंत्र और तंत्र के माध्यम से, ज्योतिष, कर्मकाण्डएवं यज्ञों के माध्यम से, शिविरों तथा साधनाओं के माध्यम से उन्होनें इस ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाया हैं।

ऐसे महामानव, के लिए कुछ कहने और लिखने से पूर्व बहुत कुछ सोचना पङता है। जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं। निखिल स्तवन के एक-एक श्लोक उनके इसी सन्यासी स्वरुप का वर्णन हैं।

बाहरी शरीर से भले ही वे गृहस्थ दिखाई दें, बाहरी शरीर से वे सुख और दुःख का अनुभव करते हुए, हंसते हुए, उसास होते हुए, पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए या शिष्यों के साथ जीवन का क्रियाकलाप संपन्न करते हों, परन्तु यह तो उनका बाहरी शरीर है। उनका आभ्यंतरिक शरीर तो अपने-आप में चैतन्य, सजग, सप्राण, पूर्ण योगेश्वर का है, जिनको एक-एक पल का ज्ञान है और उस दृष्टि से वे हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगीश्वर हैं, जिनका यदा-कदा ही जन्म पृथ्वी पर हुआ करता है।

एक ही जीवन में उन्होनें प्रत्येक युग को देखा है, त्रेता को, द्वापर को, और इससे भी पहले वैदिक काल को। उनको वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हैं, त्रेता के प्रत्येक क्षण के वे साक्षी रहे हैं।

लगभग १५०० वर्षों का मैं साक्षीभूत शिष्य हूँ, और मैंने इन १५०० वर्षों में उन्हें चिर यौवन, चिर नूतन एक सन्यासी रूम में देखा है। बाहरी रूप में उन्होनें कई चोले बदले, कई स्थानों में जन्म लिया, पर यह मेरा विषय नहीं था, मेरा विषय तो यह था, कि मैं उनके आभ्यन्तरिक जीवन से साक्षीभूत रहूं, एक संन्यासी जीवन के संसर्ग में रहूं और वह संन्यासी जीवन अपन-आप उच्च, उदात्त, दिव्य और अद्वितीय रहा हैं।

उन्होनें जो साधनाएं संपन्न की हैं, वे अपने-आप में अद्वितीय हैं, हजारों-हजारों योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, क्योंकि वे योगी उनके आभ्यन्तरिक जीवन से परिचित हैं, वे समझते हैं कि यह व्यक्तित्व अपने-आप में अद्वितीय हैं, अनूठा हैं, इनके पास साधनात्मक ज्ञान का विशाल भण्डार हैं, इतना विशाल भण्डार, कि वे योगी कई सौ वर्षों तक उनके संपर्क और साहचर्य में रहकर भी वह ज्ञान पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक वेद, पुराण , स्मृति उन्हें स्मरण हैं, और जब वे बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ब्रह्मा अपने मुख से वेद उच्चारित कर रहे हों, क्योंकि मैंने उनके ब्रह्म स्वरुप को भी देखा हैं, रुद्र स्वरुप को भी देखा है, और रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहां हू।

आज भी सिद्धाश्रम का प्रत्येक योगी इस बात को अनुभव करता है, की 'निखिलेश्वरानंद' जी नहीं है, तो सिद्धाश्रम भी नहीं है, क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी उस सिद्धाश्रम के कण-कण में व्याप्त है। वे किसी को दुलारते हैं, किसी को झिड करते हैं, किसी को प्यार करते हैं, तो केवल इसलिए की वे कुछ सीख लें, केवल इसलिए की वे कुछ समझ ले, केवल इसलिए कि वह
जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ले, और योगीजन उनके पास बैठ कर के अत्यन्त शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है, कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास बैठे हों, एक साथ हिमालय के आगोश में बैठे हों, एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समेटे हुए जो व्यक्तित्व हैं, उनके पास बैठे हों। वास्तव में 'योगीश्वर निखिलेश्वरानन्द' इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय
विभूति हैं।

राम के समय राम को पहिचाना नहीं गया, उस समय का समाज राम की कद्र, उनका मूल्यांकन नहीं कर पाया, वे जंगल-जंगल भटकते रहे। कृष्ण के साथ भी ऐसा हुआ, उनको पीड़ित करने की कोई कसार बाकी नहीं राखी और एक क्षण ऐसा भी आया, जब उनको मथुरा छोड़ कर द्वारिका में शरण लेनी पडी और उस समय के समाज ने भी उनकी कद्र नहीं की। बुद्ध के समय में जीतनी वेदना बुद्ध ने झेली, समाज ने उनकी परवाह नहीं की। महावीर के कानों में कील ठोक दी गईं, उन्हें भूकों मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने उनके महत्त्व को आँका नहीं।

यदि सही अर्थों में 'श्रीमाली जी' को समझना है, तो उनके निखिलेश्वरानन्द स्वरुप समझना पडेगा। इन चर्म चक्षुओं से उन्हें नहीं पहिचान सकते, उसके लिए, तो आत्म-चक्षु या दिव्या चक्षु की आवश्यकता हैं।

मैंने ही नहीं हजारों संन्यासियों ने उनके विराट स्वरुप को देखा है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च और अद्वितीय ब्रह्माण्ड स्वरुप मैंने उनका देखा है, और एहेसास किया है कि
वे वास्तव में चौसष्ट कला पूर्ण एक अद्वितीय युग-पुरूष हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पृथ्वी गृह पर आए हैं। मैं अकेला ही साक्षी नहीं हूं, मेरे जैसे हजारों संन्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि उन्हें अभूतपूर्व सिद्धियां प्राप्त हैं। भले ही वे अपने -आप को छिपाते हों, भले ही वे सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते हों, मगर उनके अन्दर जो शक्तियां और सिद्धियां निहित हैं, वे अपने-आप में अन्यतम और अद्वितीय हैं।


एक जगह उन्होनें अपनी डायरी में लिखा हैं --

"मैं तो एक सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करता रहा, लोगों ने मुझे भगवान् कहा, संन्यासी कहा, महात्मा कहा, योगीश्वर कहा, मगर मैं तो अपने आपको एक सामान्य मानव ही समझता हूँ। मैं उसी रूप में गतिशील हूं, लोग कहें तो मैं उनका मुहबन्द नहीं सकता, क्योंकि जो जीतनी गहराई में है, वह उसी रूप में मुझे पहिचान करके अपनी धारणा बनाता हैं। जो मुझे उपरी तलछट में देखता है, वह मुझे सामान्य मनुष्य के रूप में देखता हैं, और जो मेरे आभ्यंतरिक जीवन को देखता है, वह मुझे 'योगीश्वर' कहता है, 'संन्यासी' कहता है। यह उनकी धारणा है, यह उनकी दृष्टि है, यह उनकी दूरदर्शिता है। जो मेरी आलोचना करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, क्योंकि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबसे सर्वथा परे हूं।

मैंने कोई दावा नहीं किया, कि मैं दस हजार वर्षों की आयु प्राप्त योगी हूं, और न ही मैं ऐसा दावा करता हूं, कि मैंने भगवे वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में विचरण किया, हिमालय गया, सिद्धियां प्राप्त कीं, या मैं कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व या मैं कोई अद्वितीय कार्य संपन्न किया है। मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं और सामान्य मनुष्य की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।" डायरी के ये अंश उनकी विनम्रता है, यह उनकी सरलता है, परन्तु जो पहिचानने की क्षमता रखते हैं - उनसे यह छिपा नहीं है, के वे ही वह अद्वितीय पुरूष हैं, तो कई हजार वर्षों बाद पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
------योगी विश्वेश्रवानंद